इतिहास केवल स्मरण के लिए नहीं होता, वह सचेत करने के लिए होता है। भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है आपातकाल- शशांक पाण्डेय

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इतिहास केवल स्मरण के लिए नहीं होता, वह सचेत करने के लिए होता है। भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है आपातकाल- शशांक पाण्डे

(शशांक पांडे क़ी कलम से)

चम्पावत। 25 जून 1975, आधी रात को जब देश के अधिकांश नागरिक गहरी नींद में सो रहे थे, तब भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को एक झटका दिया गया। उस रात देश में लागू हुआ था ‘आपातकाल’। एक ऐसा समय जब भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र को मौन कर दिया गया, उसकी आवाज़ को कुचल दिया गया और संविधान की आत्मा को कैद कर लिया गया। आज, उस काली रात को 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं, परंतु उसकी छाया अब भी हमारे लोकतांत्रिक विवेक के चारों ओर मंडराती है।

1971 में भारी बहुमत से जीतने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी। लेकिन 1974–75 तक स्थितियाँ बदलने लगी थीं। देश में महँगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक जन असंतोष उभरने लगा। बिहार और गुजरात में छात्रों के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुए। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में “संपूर्ण क्रांति” की माँग ने राजनीतिक वातावरण को उबाल पर ला दिया, और फिर, 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करते हुए उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। इस फैसले ने देश की राजनीति में हलचल मचा दी। विपक्ष ने इस्तीफे की माँग की, वहीं प्रधानमंत्री ने संविधान का सहारा लेकर 25 जून को आपातकाल घोषित कर दिया।

आपातकाल केवल एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं की उपेक्षा का चरम था। उस दौर में:

• अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक संकट का हवाला देकर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से रातोंरात आपातकाल पर हस्ताक्षर करवा लिए गए।

• भारतीय प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई — संपादकों को निर्देश दिया गया कि बिना सरकार की मंजूरी के कुछ भी प्रकाशित न किया जाए।

• हज़ारों नेताओं, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और छात्रों को बिना मुकदमा चलाए गिरफ्तार कर लिया गया।

• मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए, habeas corpus (बंदी प्रत्यक्षीकरण) जैसे अधिकार तक समाप्त हो गए।

• संविधान में कई संशोधन कर कार्यपालिका को लगभग सर्वशक्तिमान बना दिया गया।

• सबसे चर्चित कदम था – ‘नसबंदी अभियान’, जो जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जनविरोधी और अमानवीय तरीके से लागू किया गया।

यह सबकुछ उस “अनुशासन पर्व” के नाम पर किया गया, जिसे सरकारी तंत्र ने “सशक्त भारत” का आधार बताया। परंतु सच्चाई यह थी कि यह लोकतंत्र की रीढ़ को तोड़ने वाला दौर था।जयप्रकाश नारायण उस समय जनता के मन की आवाज़ बन चुके थे। वे लोकतंत्र, अधिकार और नैतिकता के लिए लड़ रहे थे। जब उन्होंने कहा “सिंहासन खाली करो, जनता आती है,” तब वह केवल एक नारा नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की पुकार थी। परंतु आपातकाल लगने के साथ ही उन्हें भी जेल में डाल दिया गया। फिर भी, जेपी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस और सैकड़ों असंख्य विपक्षी नेता और कार्यकर्ता जेल में भी लोकतंत्र के लिए लड़ते रहे। 1977 में जब इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषित किए, तो उन्हें विश्वास था कि जनता उन्हें फिर से बहुमत देगी। लेकिन उन्होंने भारतीय जनमानस की आत्मा को कम आंका था।

जनता ने सत्ता की ज़्यादती को जवाब दिया, कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक पराजय मिली, और जनता पार्टी की सरकार बनी। यह लोकतंत्र की विजय थी, पर साथ ही यह एक चेतावनी भी थी कि लोकतंत्र का दुरुपयोग अधिक दिन तक नहीं चल सकता। इन प्रश्नों को अनदेखा करना लोकतंत्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। यह ज़रूरी है कि हम केवल अतीत को कोसने में न लगे रहें, बल्कि अपने वर्तमान की गहराई से समीक्षा करें।

याद रखें: लोकतंत्र को खतरा केवल सत्ता से नहीं, बल्कि चुप जनता से होता है। आपातकाल ने हमें सिखाया कि एक मजबूत संविधान भी तब बेमानी हो जाता है जब जनता निष्क्रिय हो जाए और संस्थाएँ डर में जीने लगें। नागरिकों की भूमिका केवल पाँच साल में एक बार वोट देने की नहीं है, बल्कि हर दिन सत्ता से सवाल पूछना, असहमति जताना और विवेकशील बने रहना है।आपातकाल आज भी हमारे लिए एक आईना है -कि कैसे लोकतंत्र की नींव इतनी मजबूत दिखने के बावजूद कमजोर हो सकती है, जब सत्ता एकाधिकार में बदल जाए और जनता मौन हो जाए।

50 वर्षों बाद भी, हमें यह याद रखना होगा कि लोकतंत्र को बचाना एक सतत प्रक्रिया है — और उसकी सबसे बड़ी ताक़त है जागरूक नागरिक।

(लेखक लोहाघाट, ज़िला चम्पावत निवासी हैं एवं राजनीति विज्ञान विषय के शिक्षक है)

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